Saturday, November 27, 2021

एक नज़्म

ये तो फिर ठीक है कि जीते हैं

पर ये कैसी जीत है कि इस जीत की कोई खुशी ही नहीं। 

हो भी क्यों, 

की ये खुशी किसी के गम का सबब क्यूँकर हो।

इससे तो अच्छा होता कि हार कर दिल को समझा लेते 

कम से कम ये बोझ तो दिल पर न रहता

बेहतर तो यही था कि इस बेअदबी का हिस्सा ही न बनते

पर ये बोझ भी इस दिल पे आना था 

और फिर इसको लेकर जीना था। 

ये तो यूँ है कि कोई माँ अपने बच्चे को पीट दे 

और फिर पछतावे में खुद ही रो रो कर आंखे सूजा ले।

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

जीत हार

सवाल जीत या हार का तो था ही नही
हमें दरअसल उलझना था ही नहीं। 

किसी का दिल दुखाकर खुशी पाऊं
ये मिज़ाज कभी अपना रहा ही नहीं।

हम खुद ही न समझ पाए कि हम
वो बन गए जो कभी चाहा ही नहीं।

जरा सी बात पर भिड़ जाने का शौक
जब था तो बहुत था, अब रहा ही नहीं

उसके आंसू मेरी आँखों से क्यूँ ना बहते
इतना पत्थर तो ये कलेजा था ही नहीं

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

Tuesday, September 28, 2021

कैसे चला जाऊं इस आशियाने से

मैं इसलिए डरता हूँ कहीं जाने से
मैं पर्दा रख पाता नहीं जमाने से

खुली किताब हूँ मुझे पढ़कर लोग
बाज आते नही मुझे सताने से

मेरा चमन है मैंने इसे खून से सींचा
कैसे चला जाऊं इस आशियाने से

जरा संभल कर वो सय्याद है आखिर
बाज आएगा नहीं जाल बिछाने से

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

Saturday, June 19, 2021

हद्द है

वो बिना इश्क़ सोगवार है हद्द है
और इश्क़ भी नागवार है हद्द है

जब पता ही था वो बेवफा है
क्यों ये दिल बेकरार है हद्द है

बस ख्वाब में मिलने की आस है 
और आंखों से नींद फरार है हद्द है

जिन रिश्तों की कसमें खायी थी
उन रिश्तों में भी दरार है हद्द है

कोई आसरा ही नहीं रहा लेकिन
एक उम्मीद बरकरार है हद्द है

"मौन" सच लिए खड़े हो यहाँ?
ये झूठ का बाजार है, हद्द है।

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

सच बताना

अच्छा सच बताना, 
क्या वहाँ भी तुम नींद में कंबल सरक जाने पर 
यह सोच कर वापस नहीं ओढ़ती, 
की मैं थोड़ी देर में ओढा ही दूंगा तुम्हे?
क्या तुम वहाँ भी अपने लिए रात को 
पानी की बोतल भरना भूल जाती हो? 
इस ओवरकॉन्फिडेंस में की मैं तो भर ही दूंगा।

अच्छा सच बताना
क्या तुम्हें वहाँ भी कोई रोज सुबह याद दिलाता है 
की पानी में भिगोये हुए बादाम खाने है तुम्हें, 
जैसे मैं दिलाता था यहाँ।
और क्या तुम उनको खाने में वैसे ही नखरे करती हो,
 जैसे यहाँ करती थी, 
और फिर क्या वहाँ भी तुम्हें कोई बादाम छील कर 
जबरदस्ती खिलाता है,
जैसे मैं खिलाता था यहाँ। 

अच्छा सच बताना
क्या वहाँ भी तुम नहाने के बाद 
अपना टॉवेल सुखाना भूल जाती हो?
जैसे यहाँ करती थी।
यहाँ तो अब ये सब करने वाला कोई नहीं, 
मैं अकेला ही घर की हर एक चीज से,
तुम्हारी शिकायत करता रहता हूँ और 
हर चीज कमबख्त तुम्हारा ही पक्ष लेती है 
और हार जाता हूँ मैं,
जैसे पहले हार जाता था तुमसे, हर दिन।

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

Wednesday, June 16, 2021

चलो खुद में कोई अना ढूंढे

चलो खुद में कोई अना ढूंढे
ना भी हो तो  बेपनाह ढूंढे

आज फिर वो हो गए खफा 
चलो खुद का कोई गुनाह ढूंढे

चलो आज ढूंढे कोई बेसहारा
फिर उसके लिए पनाह ढूंढे

तुम्हे जो वो बेइंतेहा इश्क़ था
वो मोहब्बत वाली निगाह ढूंढे

उनपे मुकदमा कर दें बेवफाई का
और फिर अपने लिए गवाह ढूंढे

उन निगाहों में अपने लिए प्यार
मिलना नहीं है, खामख्वाह ढूंढे

अपना गम गैरों को बताकर
कोई मुफ्त की सलाह ढूंढे

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

Wednesday, February 10, 2021

जुदा होकर भी उसके होने का भरम रहा

एक अरसे तक वो मेरा मोहतरम रहा,
जुदा होकर भी उसके होने का भरम रहा

मैं उस दिन पहली बार माँ से झूठ बोला
कईं महीनों तक मेरे दिल में ये गम रहा।

मिरे हर शेर ने कितने दुश्मन बनाये मिरे
पर कलम में यही असनाफ़े-सुख़न रहा।

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

असनाफ़े-सुख़न = लेखन शैली

मैं उससे बिछड़ कर यूँ पिघलता रहा

एक अरसे से दिल में गम पलता रहा
मैं उससे बिछड़ कर यूँ पिघलता रहा

कोई दोस्त होता तो ये हाल न होता
मैं अकेला था यहां रोज जलता रहा

जो मिरा मुदर्रिस था वही दर्स था मिरा,
वो मुझे पढ़ाता रहा मैं उसे पढ़ता रहा।

वो सच जान कर रूठ ना जाए कहीं
रोज एक नयी कहानी मैं गढ़ता रहा

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

आधा आधा इश्क़

यूँ आधा इश्क़ मैनें और आधा उसने किया,
इंतख़ाब मैंने किया इख़्तिताम उसने किया। 

ये कैसे दाग नजर आ रहे है पैराहन पर मिरे
इतनी बेतरतीबी से मुझे कत्ल किसने किया

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

Friday, January 15, 2021

तेरे आने की उम्मीद ने सोने ना दिया

होनी को तो बहुत मंजूर था मगर होने ना दिया
उसकी दुवाओं ने मुझे मुन्तशिर होने ना दिया

बहुत ख़्वाबीदा सी लग रही है आंखें तुम्हारी
कुछ तो है जिसने तुम्हें शब भर सोने ना दिया

अजीब शक्श है और अजीब है इश्क़ उसका
हजार सितम किये मुझपे और रोने ना दिया

दुनिया के इस सहरा में भी साथ हैं हम तुम
कुछ तुमने मुझे कुछ मैंने तुम्हें खोने ना दिया

वो रात गोया एहतिज़ार के लम्हात सी गुजरी 
"मौन" तेरे आने की  उम्मीद ने सोने ना दिया

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

बिटिया

चलते चलते यकायक मुड़ जाएगी
में रुक गया तो वो भी रुक जाएगी

क्या सितम है घर की रौनक है जो
ये चिड़िया भी एक दिन उड़ जाएगी

उसकी अठखेलियाँ मेरी खुराक है 
ये ना देखूं तो धड़कन रुक जाएगी

मेरे हर मर्ज की दवा है ये बिटिया
ये चली गयी तो सांसे छूट जाएगी

"मौन" आखिर तू किस गुमान में है
ये दौलत तो एक दिन लुट जाएगी

© लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

बस इतनी सी बात जान के जीवन सफल  हो गया अपना  पिताजी माँ से कह रहे थे ये लड़का ठीक निकल गया अपना लोकेश ब्रह्मभट्ट “मौन”