सवाल जीत या हार का तो था ही नही
हमें दरअसल उलझना था ही नहीं।
किसी का दिल दुखाकर खुशी पाऊं
ये मिज़ाज कभी अपना रहा ही नहीं।
हम खुद ही न समझ पाए कि हम
वो बन गए जो कभी चाहा ही नहीं।
जरा सी बात पर भिड़ जाने का शौक
जब था तो बहुत था, अब रहा ही नहीं
उसके आंसू मेरी आँखों से क्यूँ ना बहते
इतना पत्थर तो ये कलेजा था ही नहीं
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
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