वो अलग जमाना था जब मैं और तुम मिले थे
ये वो जमाना ही नहीं
जब मेरी दुनियाँ तेरे रुख़सार के इर्द गिर्द
ही शुरू होकर खत्म हो जाती थी
और मैं बेतहाशा दीवानगी में
हर आहट में तेरे आने का
झूठा भरम पाल कर चोंक उठता था।
ये जानते हुए भी की तू नहीं है।
और सचमुच तेरे आने पर तो मेरा चेहरा
जैसे किसी सूरजमुखी के फूल सा
अनायास ही तेरी और मुड़ कर खिल जाता था
जैसे तू ना हो कोई सूरज की पहली किरण निकली हो
किसी काले बादल सा काजल लगा के।
वो अलग जमाना था जब मैं और तुम मिले थे।
ये वो जमाना ही नहीं
जब तुम्हारी हर छोटी से छोटी तकलीफ पर भी
पहला हक मेरा होता था।
फिर चाहे उसमे कितना वक्त जाया हो
और ये जानते हुए भी की जरा सी बात है
परंतु तुम उस राई का पहाड़ बना कर
मुझे उसमें शामिल करने का बहाना ढूंढ ही लेती थी
और मैं भी आदतन पूरी शिद्दत से लग जाता था
उन गुत्थियों को सुलझाने में।
वो अलग जमाना था जब मैं और तुम मिले थे।
ये वो जमाना ही नहीं
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"