ये तो फिर ठीक है कि जीते हैं
पर ये कैसी जीत है कि इस जीत की कोई खुशी ही नहीं।
हो भी क्यों,
की ये खुशी किसी के गम का सबब क्यूँकर हो।
इससे तो अच्छा होता कि हार कर दिल को समझा लेते
कम से कम ये बोझ तो दिल पर न रहता
बेहतर तो यही था कि इस बेअदबी का हिस्सा ही न बनते
पर ये बोझ भी इस दिल पे आना था
और फिर इसको लेकर जीना था।
ये तो यूँ है कि कोई माँ अपने बच्चे को पीट दे
और फिर पछतावे में खुद ही रो रो कर आंखे सूजा ले।
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
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