Saturday, July 8, 2017

कुछ मिल जाए तो भिजवा देना......

बहुत कुछ भूल आया हूँ मैं घर में,
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

कितनी शामों के खाने का लज़ीज़ जायका आज भी,
देखना वहीँ कहीं 
खाने की टेबल पर रखा होगा|
खाते खाते बड़ी बड़ी बातें 
और बेमतलब की गुफ्तगू,
हरी मिर्च -सरसों का अचार 
और गरम खाने की खुशबू 
वहीँ कहीं रसोई के बगल में छूट गयी है 
मिल जाए तो भिजवा देना |

बरामदे में जहाँ  वो एक फाख्ता का घोसला था 
और कुछ चिड़ियों ने 
अवैध कब्ज़ा किया हुआ था,
सर्दी के मौसम के कुछ 
रविवारों की दोपहरियाँ 
उसी बरामदे में कहीं छूट गयी है 

मिल जाए तो भिजवा देना 

छूट गयी है कुछ बारिश की शामें भी वही पीछे के गलियारे में,
और टिन की छत पर गिरती
बूंदों की स्वर लहरियां भी |
क्यारियों में फूलों की पंखुड़ियों पे 
उन अलसाई सुबहों में रखी
कुछ ओस की बूंदें छूट गयी हैं 
मिल जाए तो भिजवा देना |

वो मौसमी फूलों के पौधे जो बोये थे आँगन की क्यारियों में,
पर कभी उगे ही नहीं,
वो गिटार जो सीखने को खरीद लाया था मैं,
पर कभी सिखा ही नहीं,
वो हजारो लम्हे और उन लम्हों में हजारों किस्से,
मुझे याद है वो सब कुछ जो कभी हुआ ही नहीं,
फिर भी उन लम्हों में से 
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

बहुत कुछ भूल आया हूँ मैं घर में,
कुछ मिल जाए तो भिजवा देना |

©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

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