Sunday, July 21, 2013

अधुरा...


अधुरा हूँ अरसे से पर एक हसरत है बाकी,
तू लोट के आये और मुकम्मल हो जाऊं |

तेरी बारिश की बूंदों का मुन्तजिर हूँ बरसों से,
तू दरिया बनके आये मैं समुन्दर हो जाऊं |

ये तिश्नगी-ऐ-दिल मह से कहाँ बुझने वाली,
तू बस आँखों से पिला दे मैं शायर हो जाऊं |

यूँ पथराई आँखों से तेरी राह को तकते तकते,
यूँ ना हो कहीं मैं राह का पत्थर हो जाऊं |

तेरे पीछे हयात गुज़ार कर अब लगता है,
अपने चाहने वालों को ही मयस्सर हो जाऊँ
©लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"

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