तुम्हारी नामौजूदगी
तुम्हारे होने की क़ीमत याद दिलाती है मुझे
मैं वो दीया हूँ
जो बिना बाती के रोशन हुआ चाहता है ।
पर उसको याद नहीं
की वो बिनाई दीये की नहीं
वो तो बाती और तेल की बदौलत
रोशन होती है ।
ग़लतफ़हमी फिर ग़लतफ़हमी ही है
चाहे वो कितनी भी ख़ुशफ़हमी के रूप में आए ।
बेहतर है समय रहते
एहसास हो जाए हकीकत का
और क़ीमत समझ लूँ मैं तुम्हारी ।
© लोकेश ब्रह्मभट्ट "मौन"
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